अक्टूबर का दिन हल्की ठंड और करीब 12 बजे का समय पीकू अपनी स्कूल पूरी कर रोज की तरह घर के पास के किले पर अपने हवाई किले बनाने जाता; पीकू बिलो मिडिल क्लास फैमिली में पल रहा एक 8 साल का बालक, स्कूल खत्म होते ही वो ऐसे भागता जैसे पिंजरे से चिड़िया।
स्कूल में पीकू का मन नहीं लगता, सारा समय यही सोचता कि कब स्कूल ख़त्म हो और कब वो किले पर जाए वहाँ किले की दीवारों से पीकू अपनी नन्ही आँखों से पूरा शहर देख सकता था।
किले की दीवार पर उसका दिन सब्ज़ी बेचने वालो और बस अड्डे पर आते-जाते लोगों को देख कर हवाई किले बनाते गुज़रता, उन्हें देख वो ख़ुद को सम्राट समझता वो कहता बड़ा होकर वह इस शहर का राजा बनेगा और यह किला उस की मिल्कियत होगी, ना सिर्फ इतना वो अपने दोस्तों को भी वहाँ ले जा कर राजा होने की नक़्ल करता वो कहता वो बड़ा हो कर राजा बनेगा और दोस्त उसका अक़्सर मज़ाक उड़ाते।
एक दिन पीकू यह सब करके जब घर जा ही रहा था, उसने सोचा क्यों ना आठ आने की शक्कर गोली ली जाए, क्योंकि उसे मीठा बहुत पसंद था सो वो किले के सामने ही मौजूद चितवन काका की दुकान पर गया, आठ आने की चार शक्कर गोली को देख कर आँखों में चमक लिए जैसे ही पलटा उसे एक बहरूपिये ने ज़ोर की आवाज़ करते हुए घेर लिया।
पीकू की सांसें थम गई वह डर गया था,
डर के मारे उससे सारी शक्कर गोलियां गिर गई थी, इतना होते ही उस की आँखों से एक आँसू उसकी हथेली पर जा गिरा;
वह हथेली जिसमें अब घर की जिम्मेदारियों और आकांक्षाओ से भरी सब्ज़ियां है वह अब 28 का है।
अक्षय जोशी
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मेरे पड़ोस में एक सड़क है
मेरे पड़ोस में एक सड़क है
जहाँ से लगातार शोर आता है,
शोर गाड़ियों का,
गाड़ियों के हॉर्न का,
गाड़ियाँ ऐसे दौड़ती है जैसे
टायरों से दुनिया को घुमाना चाहती हो,
एक ऐसी दुनिया जो पहले से घुमी हुई है,
ऐसे लोग जो रुकना चाहते है पर रुक नही सकते,
जिंदगी को महसूस करना चाहते है पर कर नहीं सकते,
यही वो लोग है जो फ़र्ज़ को कर्ज़ पर लिया करते है,
जिम्मेदारियों में दबे रहते है,
ये जो दौड़ है लोगो की ये पाना क्या चाहते है,
ख़ुद को पता नही पर लोगो को समझाना चाहते है
कई मज़हबो की दुनिया में ये रमज़ान का महीना है,
कोई राम राम में द्वन्द करे कोई अनासक्ति में डूबा है,
वाइज़ो की इंसानियत सोई है महलो में,
गरीब आज भी भूका है
अमीर आज भी भूका है,
लंबी लंबी सड़के ये सदाए क्या देती है,
ख़ुदा है अगर धरती पर तो क्यों लोगो में बैरी है,
एक सड़क है लंबी सीधी सी कुछ ऊँची सी कुछ नीची सी,
हर मिल के पत्थर पर ख़ुदा का स्वयं पहरा है,
कोई आगे न पीछे सब उसका सब उसका है,
पड़ोस की दीवार पर एक खिड़की नवेली है,
सड़क को तकता हूँ मंज़िल कुछ अकेली है,
अदिबो की बस्ती का सफ़र कुछ हल्क़ा है,
अभी नींद से जागा हूँ आँखों में धुंधलका है,
पड़ोस की खिड़की दृश्य मुझे ये दिखाती है,
सड़क है इक उस पर बच्चों से भरी गाड़ी है,
मेरे पड़ोस में एक सड़क है ।
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