मेरे पड़ोस में एक सड़क है

मेरे पड़ोस में एक सड़क है
जहाँ से लगातार शोर आता है,
शोर गाड़ियों का,
गाड़ियों के हॉर्न का,
गाड़ियाँ ऐसे दौड़ती है जैसे
टायरों से दुनिया को घुमाना चाहती हो,
एक ऐसी दुनिया जो पहले से घुमी हुई है,
ऐसे लोग जो रुकना चाहते है पर रुक नही सकते,
जिंदगी को महसूस करना चाहते है पर कर नहीं सकते,
यही वो लोग है जो फ़र्ज़ को कर्ज़ पर लिया करते है,
जिम्मेदारियों में दबे रहते है,
ये जो दौड़ है लोगो की ये पाना क्या चाहते है,
ख़ुद को पता नही पर लोगो को समझाना चाहते है
कई मज़हबो की दुनिया में ये रमज़ान का महीना है,
कोई राम राम में द्वन्द करे कोई अनासक्ति में डूबा है,
वाइज़ो की इंसानियत सोई है महलो में,
गरीब आज भी भूका है
अमीर आज भी भूका है,
लंबी लंबी सड़के ये सदाए क्या देती है,
ख़ुदा है अगर धरती पर तो क्यों लोगो में बैरी है,
एक सड़क है लंबी सीधी सी कुछ ऊँची सी कुछ नीची सी,
हर मिल के पत्थर पर ख़ुदा का स्वयं पहरा है,
कोई आगे न पीछे सब उसका सब उसका है,
पड़ोस की दीवार पर एक खिड़की नवेली है,
सड़क को तकता हूँ मंज़िल कुछ अकेली है,
अदिबो की बस्ती का सफ़र कुछ हल्क़ा है,
अभी नींद से जागा हूँ आँखों में धुंधलका है,
पड़ोस की खिड़की दृश्य मुझे ये दिखाती है,
सड़क है इक उस पर बच्चों से भरी गाड़ी है,
मेरे पड़ोस में एक सड़क है ।

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Aakhri chaai

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मै पहली बार चाय पिया तो यु लगा, के होठ वाबिस तात ए मिठास के , एक चुस्की से मुँह से अमृत चख डाला हो, के जैसे ठंडा कोयला सीने में भड़का हो, के लाख कप बाकि थे और आगाज़ किया हो, शुरू की एक दिन से दो तलक पहुँचा, फिर कुछ मिले दोस्त पीने वाले तो 4 तक पहुँचा, भरा जब मन नही तो 4 से 8 भी कर दी, सुबह उठना तो एक पीना, कही जाना तो एक पीना, किसी से मिलने से पहले तो किसी से मिल कर फिर पीना, कभी नरवस तो एक दो, कभी बेदार तो एक दो, कभी खुशबाश होकर 10 तो कभी दिल टूटने पर 100, कभी घर से निकल कर किसी अनजान गली में , कभी बिस्कुट तो कभी ब्रेड के साथ , घड़ी के काटे बदले एक चाय एक टपरी में, मगर इस जिस्म को धोखा हुआ मालूम न चला, मेरे गुर्दो ने इस शक्कर को इस तरह सोखा, के सांसे थम के चलने लग गयी शाम ओ शहर मेरी, महीनो तक हलक छिलने लगा मगर हर पल, के सुखा पड़ गया मास और लहू जमने लगा हर पल, के दांत पीले हो गए होठ काले पड़ गए, के खून गुब्बारों जैसे मुँह छाले हो गए, प्यास मेरी बढ़ गयी और भूख मेरी घट गयी , नींद को जो आँखों से बांधे वो डोरी कट गयी, उम्मीदों और दुआओ से शिफ़ा की पुरिशे भी की किसी जादू किसी टोने से कुछ हो कोशिश भी की, मगर कुछ न होना था मुझे एक दिन जाना था ।
मैं शायद नींद से उठा हूँ और एक सर्द कमरा है, मेरी आँखों में बेहोशी नही साकेत अँधेरा है, मेरी कलाई की नसों को सुइयों ने चिर डाला है, मेरे सीने में चाकू डाल शायद दिल निकाला है, मेरा लिबास ए जिस्म मेला हो चूका है , जाते जाते मेला पैन दूर करना है, बस ऐसे अलविदा कह दो मेरी इन आखरी साँसों को, एक आखरी चाय का तोहफा दो , मै आखरी बार चाय पिया तो कुछ  हुआ ऐसा ।